Saturday, February 20, 2010

नक्सलवादः घरेलू आतंकवाद



देश के ज्यादातर राज्यों को अपनी चपेट में ले चुका नक्सलवाद अब तेजी के साथ आतंकवाद में तब्दील होता जा रहा है. पिछले कुछ दिनों में बिहार और पश्चिम बंगाल में हुई नक्सली हिंसा ने इस बात को पूरी तरह से सही साबित भी कर दिया है. पश्चिम बंगाल के सिल्दा में नक्सलियों ने सेना के कैंप पर हमला करके चैबीस जवानों को मौत के घाट उतारा, वहीं बिहार के जुमई में एक गांव पर हमला करके बारह ग्रामीणों की जान ले लीं. कुछ ही दिनों के भीतर हुई ये नक्सली हिंसा भयावह है.
लेकिन रूकिए, भयावह सिर्फ हिंसा ही नहीं है, हिंसा का तरीका भी है. असल में यह तरीका भयावह ही नहीं, भारत सरकार की आंखों की नींद उड़ा देने वाला भी है. इसकी वजह, नक्सली हिंसा को अंजाम देने का नक्सलियों का वह तरीका, जो सबको हैरान कर रहा है. हमारी सुरक्षा एजेंसियां कह रही है कि सिल्दा में जो नक्सली हमला हुआ, उसमें महिलाएं शामिल थी. इतना ही नहीं, इस पूरी कार्रवाई को अंजाम देनें की जिम्मेदारी भी एक महिला के हाथों में थी. इसी तरह, बिहार के जुमई में गांव पर जो नक्सली हमला हुआ, उसकी कमान बच्चों के हाथों में थी. चैदह साल की कम उम्र के इन बच्चों ने दर्जनभर से भी ज्यादा गांववालों को मौत के घाट उतार दिया. इसके साथ ही नक्सलियों ने भारत सरकार को यह साफ संकेत दे दिया कि वह अपनी रणनीति में बदलाव ला चुकी है.
हैरानी इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि कुछ अरसा पहले हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने ही यह खुलासा किया था कि नक्सली देश के अलग-अलग हिस्सों में महिलाओं और बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं. इस खुलासे के बाद बवाल तो खूब मचा था, लेकिन ठोस कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ. बिहार और पश्चिम बंगाल में हुई नक्सली हिंसा से तो यही संकेत मिलता है कि हम भले हीे पाकिस्तान पोषित आतंकवाद पर काबू पाने का दंभ भरते हों, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि हम देश के भीतर ही नक्सलियों से नहीं निपट पा रहे हैं. महज चुनावों की खानापूर्ति करके सरकार अपनी जिम्मेदारी से मूंह नहीं मोड़ सकती. न ही हिंसा के बदले हिंसा की राह अपनाकर इस घरेलू आतंकवाद से निपटा जा सकता है.
इसके लिए साझा प्रयासों की जरूरत है. जरूरत है कि राज्य सरकारें केंद्र सरकार के साथ मिलकर इस समस्या का हल ढूंढे. जरूरत इस बात की है कि वोट बैंक को किनारे रखकर देश की आंतरिक सुरक्षा में आ गई इस बड़ी दरार को बूझने का काम किया जाए.
अफसोस कि यह होता नहीं दिखता. गृहमंत्री पी चिदंबरम के बयानों से तो कम से कम यही लगता है. जनाब कभी नक्सलियों से बातचीत की बात करते हैं, तो कभी उन्हें धमकाते हैं. इन्दौर में हुए भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डाॅ रमनसिंह ने यह बड़े गर्व के साथ कह दिया कि हमारे राज्य में हम नक्सलवाद पर काबू पाने में कामयाब हो गए हैं. रमनसिंह यह बात चुनावी नतीजों के आधार पर कह रहे थे, लेकिन इस बीच वे यह आसानी से भूल गए कि छत्तीसगढ़ में वोट डालने वाले मतदाताओं का प्रतिशत चालीस भी पार नहीं कर पाया था. जाहिर है, वक्त बयानबाजी का नहीं, कार्रवाई का है.

प्रणब दाः कोई गुडलक निकालों....



26 पफरवरी को यूपीए के वित्तमंत्राी प्रणब मुखर्जी एक बार पिफर देश की जनता के बीच बजट का पिटारा लेकर आने वाले हैं. आम बजट को समर्पित इस तारीख का देश के सभी तबकों में शिद्दत से इंतजार किया जा रहा है. इसकी वजह बेबस और लाचार बना देने वाली वह महंगाई है, जिसने पिछले कुछ महीनों में आम आदमी के घरेलू खर्च को पूरी तरह से चरमरा दिया है. ऐसे में महंगाई से निजात पाने के लिए हर कोई प्रणब दा के पिटारे के खूलने की राह देख रहा है, ताकि उस पिटारे में से उसके लिए कोई राहतभरी सौगात निकले. देश में खाघ पदार्थो की कीमतें आसमान छू रही है, सब्जियां आम आदमी के लिए त्यौहारों पर बनाए जाने वाले व्यंजनों की तरह हो गई है. शक्कर की कीमतों में उछाल का यह आलम है कि आजकल तो घर आए मेहमान को चाय का पूछने की हिम्मत भी नहीं होती. ऐसे में आम आदमी इस बात की उम्मीद लगाए बैठा है कि प्रणब दा उसके किचन के खर्चे को कर दें, उसकी चाय में थोड़ी मिठास घोल दे.

लेकिन क्या ऐसा सच में हो पाएगा? और पिफर, ये वहीं मुखर्जी हैं, जो पिछले साल बजट लाए थे, तो दलाल स्ट्रीट औंध्े मूंह गिर गया था. चंद घंटों के भीतर शेयर बाजार ने चैबीस लाख करोड़ रूपए की चपत खाई थी. तब प्रणबदा का बजट आम आदमी, उद्योगपतियों और रईस तबके किसी को नहीं भाया था. तो पिफर ऐसे में भला अब उनसे किस आधर पर राहत की उम्मीद लगाएं ?

पिफर भी, आम आदमी उम्मीद लगाएं बैइा हैं, तो सिपर्फ इसलिए कि इस महंगाई में तो घर चलाना उसके बूते के बाहर की बात है. उसके पास दूसरा केाई विकल्प ही नहीं है, इसके सिवाय की वह प्रणबदा के पिटारे की ओर ऐसे देखे, मानों उसमें से कोई जिन्न निकलेगा, जो महंगाई के भूत को अरब अमीरात के तेल के कुंओं में दपफन कर आएगा. इसीलिए वह चाहता है कि प्रणब दा उसके बारे में सोचे. देश के आम आदमी के बारे में सोचे. भारतीय लोकतंत्रा में ज्यादातर वित्तमंत्राी यह पंरपरा निभाते आए हैं कि बजट पेश करने से पहले वे देश के सभी शीर्ष औद्योगिक घरानों, उद्योगपतियों से राय-मशविरा करते हैं, ताकि उनकी समस्याओं को सुनकर उनका निदान किया जाए. लेकिन अब इस परिपाटी को बदलने का वक्त गया है. देश का आम आदमी उम्मीद लगाए बैठा है कि वित्तमंत्राी उनके घरों में आकर उनकी समस्याएं पूछे. पूछे कि दो वक्त का भोजन जुटाना उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती क्यों बन गया है? पूछे कि वह अपने बच्चों की परवरिश ठीक से क्यों नहीं कर पा रहा है? पूछे कि क्यों उसके जेब में किसी भी त्यौहार, शुभ अवसर के लिए पैसा क्यों नहीं होता?

सच में, देश का आम आदमी प्रणबदा से यही उम्मीद लगाए बैठा है. काश, प्रणबदा को भी इस उम्मीद की आहट सुनाई दे. काश उनके पिटारे से आम आदमी के लिए जिन्न जैसा कुछ निकल आए, जो उनकी सारी तकलीपफें दूर कर दें. काश प्रणबदा के पिटारे से कोई गुडलक निकल आए....

Friday, February 19, 2010

महान नहीं है ‘खान’



आंकड़ों के लिहाज से देखा जाए तो शाहरूख खान अभिनीत फिल्म ‘माई नेम इज खान’ भारतीय सिनेमा की सबसे कामयाब फिल्म साबित हो सकती है। कुछ महीनों पहले ही डेढ़ सौ करोड़ रूपए से ज्यादा की कमाई करके बाॅलीवुड की सबसे कामयाब फिल्म का दर्जा पाने वाली ‘थ्री इडियट’ को भी शाहरूख की इस फिल्म ने विदेषों में तो कमाई के मामले में पीछे छोड़ ही दिया है, अब भारत में भी आने वाले सप्ताहों में फिल्म आमिर की फिल्म को पीछे छोड़ सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या सही मायनों में ‘माई नेम इज खान’ बाॅलीवुड की सबसे कामयाब फिल्म है। मुझे याद है कि बाॅलीवुड को कई महान फिल्में देने वाले गुलजार साहब की वह बात, जो उन्होंने तीन साल पहले कहीं थी, जब मैं उनका साक्षात्कार लेने उनके ‘बोस्कियाना’ में पहुंच गया था। अपनी फिल्मों का जिक्र छिड़ने पर गुलजार साहब ने मुझसे बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा था कि मेरी फिल्में महान है, यह बात सही है, लेकिन मुझे इस बात की संतुष्टि है कि मेरी फिल्म ने उस दर्षकों को भी उसके पैसे की पूरी कीमत वसुल कराई, जो उसने सिनेमाघर में मेरीे फिल्म देखने में खर्च किया। गुलजार साहब का कहना यह था कि उनकी फिल्में संदेषपरक तो थी ही, साथ ही मनोरंजक भी थी। आखिर में उन्होंने मुझसे यही कहा था कि किसी भी फिल्म को सबसे पहले मनोरंजक होना चाहिए, उसके बाद संदेषपरक।
शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ को इसी कसौटी पर तौले तो साफ हो जाता है कि ‘खान’ देष-दुनिया में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म भले ही बन जाए, लेकिन यह सबसे महान भारतीय फिल्म नहीं बन सकती। यह कमाई में भले हेी ‘थ्री इडियट, शोले, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, गजनी को पीछे छोड़ दे, लेकिन उनके बराबर महान नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ तमाम खूबियों के बावजूद एक मनोरंजक फिल्म नहीं है। यह दर्शकों को उस तरह हंसाती, या अपने साथ नहीं जोड़ती, जिस तरह थ्री इडियट और शोले जोड़ती है। फिल्म एक ऐसे मुसलमान रिजवान की कहानी कहती है, जो खुद को आतंकवादी बिरादरी से अलग साबित करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने की असंभव कोषिष करता है और उसमें कामयाब भी होता है। लेकिन यकीन कीजिए उसकी यह कोषिष बिल्कुल भी मनोरंजक नहीं है। बाॅलीवुड के प्रख्यात आलोचक कोमल नाहटा ने मुझसे सही कहा कि यह फिल्म शुरू से आखिर तक एक ही ढर्रे पर चलती है। न तो इसमें शाहरूख और काजोल के बीच रोमांस का तड़का अच्छे से लगा है और न ही हंसाने वाले दृष्य बहुत ज्यादा हैं। इसके साथ ही फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि एक वक्त के बाद रिजवान का अमेरिकी राष्ट्रपति तक पहुंचने का सफर दर्षकों को बोझिल लगने लगता है। इसी के चलते दर्षक आखिर कुछ रीलों में यह दुआ करता नजर आता है कि शाहरूख जल्द से जल्द राष्ट्रपति से मिल लें, तो वह सिनेमाघर से बाहर निकले।
जाहिर है, ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि फिर शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ इतनी कमाई करने में कामयाब कैसे हुई? आखिर कैसे इसने भारत में ही नहीं, पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरब, सभी जगह कामयाबी के नए कीर्तिमान बना डाले? तो इसका सबसे उपयुक्त जवाब यही होगा कि फिल्म की कामयाबी में उसके साथ जुड़े विवादों ने खास भूमिका निभाई है। याद कीजिए उन दिनों को, जब माई नेम इज खान की 12 फरवरी को रिलीज से ठीक पहले षिवसेना और शाहरूख के बीच विवाद किस तरह सुर्खियां बटोर रहा था। शाहरूख ने आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के बारे में कुछ बोला और बाल ठाकरे ने इसे देष का सबसे चर्चित मुद्दा बना डाला। चूंकि शाहरूख की फिल्म रिलीज होने वाली थी, इसलिए उन्होंने भी इस विवाद को खूब हवा दी। याद कीजिए, किस तरह शाहरूख ने बाल ठाकरे से माफी मांगने से मना कर दिया, दुबई से मुंबई आए और वापस विदेष चले गए। फिर रिलीज वाली तारीख, यानी 12 फरवरी को वे ट्वीटर पर जमंे रहे और वहां हर दूसरे मिनट फिल्म को समर्थन मिलने की बात पर भावुक संदेष भेजते रहे। उन संदेषों को चूंकि भारतीय मीडिया ने भी दिखाया, इसलिए हर हिंदुस्तानी को पता चल गया कि उनका लाडला सितारा बाल ठिकारे के अन्याय के खिलाफ लड़ रहा है. भारतीय जनता वैसे भी जल्दी भावुक हो जाती है, इसलिए वह भी समर्थन दिखाने के लिए सिनेमाघर पहुंच गई। तो, इस तरह फिल्म ने रिकाॅर्डतोड़ कमाई की और भारतीय सिनेमा की सबसे कामयाब फिल्म बन गई।
हालांकि फिल्म मनोरंजक नहीं है, इसका पता उसके दूसरे सप्ताह में कमाई के आंकड़ों से भी लग जाता है। फिल्म की दूसरे सप्ताह की कमाई में 60 फीसदी तक की गिरावट देखी गई है। जाहिर है, वे लोग जो शाहरूख-षिवसेना के विवाद के चलते फिल्म देखने चले गए थे, उसे दोबारा नहीं देखना चाहते। गुलजार साहब के शब्दों मेंः महान फिल्म वहीं होती है, जिसे दर्षक बार-बार देखने जाए। गजनी और थ्री इडियट को लोगों ने कई बार सिनेमाघर जाकर देखा। लेकिन शाहरूख की ‘माई नेम इज खान’ से लोगों ने पहली बार में ही इतिश्री कर ली। इसीलिए मैं कहता हूं कि ‘माई नेम इज खान’ सबसे कामयाब फिल्म भले ही बन गई हो, लेकिन यह बाॅलीवुड की सबसे महान फिल्म नहीं है। इसे सबसे महान फिल्म कहना दूसरी महान फिल्मों की तौहीन होगी।

दोगलेपन पर उतारू भाजपा




देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा के ऊपर अगर हमेशा ही यह आरोप लगता रहा है कि वह अपनी सोच और नीतियों को लेकर हमेशा ही दोहरा रवैया अपनाती आई है, तो यह गलत नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथसिंह और अब पार्टी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के कार्यकाल में भी भाजपा का यह दोगलापन जस का तस कायम है। किसी को अगर इसकी मिसाल देखनी थी, तो वह मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधनी इन्दौर में भाजपा के तीन दिवसीय अधिवेशन में चला जाता। गडकरी की अगुवाई में भाजपा ने इस अधिवेशन का खाका तो इसलिए तैयार किया था, कि अंर्तविरोधों और आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों से जूझ रही पार्टी में एक नई जान फूंकने का प्रयास किया जाए। लेकिन इसके ठीक उलट यह अधिवेशन पार्टी के दोगलेपन को उजागर करने वाला साबित हुआ। दोगलापन यह कि लगातार दो लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद पार्टी ने अपनी विचारधारा में बदलाव के स्पष्ट संकेत दिए थे। राजनाथसिंह और आडवाणी की विदाई के साथ पार्टी ने यह जताने की कोशिश की थी कि भविष्य में वह राम नाम नहीं जपेगी, बल्कि कांग्रेस की तरह ही विकास की राजनीति को तवज्जो देगी। लेकिन इन्दौर के तीन दिवसीय अधिवेशन में एक बार फिर भाजपा की कथनी और करनी का अंतर उजागर हो गया, जब गडकरी भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही राम का नाम जपते आए। गडकरी साहब अधिवेशन में बुलंद आवाज के साथ यह कह गए कि अयोध्या और राम तो पार्टी की आत्मा में बसे हुए हैं, सो इससे पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं उठता। फर्क सिर्फ इतना रहा कि अपने पूर्ववर्तियों के उलट गडकरी ने अयोध्या मामले को सुलझाने का एक नया और अजीबोगरीब प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव यह कि देश के मुसलमान भाई अयोध्या में मंदिर बनाने दे, उसके बदले में भाजपा मंदिर के आसपास मस्जिद बनाने में मदद करेगी। अब यह एक नया और अजीबोगरीब प्रस्ताव है? अजीबोगरीब इसलिए क्योंकि यह देश में एक नए विवाद को जन्म दे सकता है। प्रस्ताव अजीबोगरीब इसलिए भी है, क्योंकि इस बात की प्रबल संभावना है कि स्वयं गडकरी की पार्टी के नेता ही इसे स्वीकार करने में दिलचस्पी नहीं दिखाएंगे। गडकरी भले ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ईशारे पर भाजपा के सर्वेसर्वा बनाए गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं ने उन्हें इस कदर स्वीकार कर लिया है कि वह अध्यक्ष बनने के मात्र दो महीनों बाद पार्टी के सबसे अहम मुद्दें में ही इस तरह के आमूलचूल बदलाव ले आएं।
असलियत यह है कि भाजपा हमेशा ही धर्म की राजनीति को पोषणे वाली पार्टी रही है। बाबरी विध्वंस के बाद उसने हमेशा ही देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास किया है। देश में भूखमरी है, कंगाली और कर्जे से मरते किसान हैं, बेरोजगार युवा हैं और महंगाई के तले दम तोड़ता मध्यमवर्गीय तबका है। लेकिन उनकी समस्याओं को सुलझाने के बजाए रामजन्मभूमि विवाद भाजपा को केंद्र की सत्ता में आने का सबसे अच्छा हथियार नजर आता है। इसी नजरिए के चलते, गडकरी को भी कानपूर स्थित संघ के मुख्यालय से फरमान सुना दिया गया है कि साहब आप तो बस अयोध्या का नाम रटो, देश के मतदाता अपने आप पार्टी की तरफ खींचे चले आएंगे। इसीलिए विचारधारा में बदलाव की सभी उम्मीदों को खारिज करते हुए गडकरी ने भी राम का नाम जपकर पार्टी की सोच पर मुहर लगा दी है।
गडकरी ने अधिवेशन में अपने तीन घंटे से ज्यादा चले भाषण के आखिर में एक बड़ी सुंदर कविता पढ़ी, जिसका तात्पर्य यह था कि भीषण आग से घिरे एक मकान के ऊपर अपनी चोंच से पानी के कुछ कतरे डालने वाली चिढ़ियां भी यह सोचकर खुश होती है कि उसका नाम आग लगाने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वालों में लिया जाएगा। निश्चित ही यह बड़ी सुंदर कविता थी, लेकिन गडकरी अपनी अयोध्या केंद्रित सोच के चलते इसके साथ न्याय नहीं कर पाएं। वजह, उनका नाम भी भाजपा के इतिहास में अयोध्या मसलें की आग को और ज्यादा भड़काने वालों में लिया जाएगा, न कि इस मसले की आग को बुझाने वालों में।

खाली खाली सा मकान


खाली खाली सा मकान
सुकुन देता है दिल को
पत्तों का न खड़कना भी
अब मुझे अच्छा लगता है......
जिंदगी के आखिरी सफर में
बस अब बीती यादों की धमक
बीतें सपनों की दुनिया में जाना
अब अच्छा लगता है मुझे....
जिंदगी...

जिंदगी...



जिंदगी फिर खड़ी हुई है
उस एक हादसे के बाद
खुषियां फिर आई है मेरे दरवाजे
उस एक मातम के बाद..........
मैं भी उठ खड़ा हुू
कर रहा हूं उनका इस्तकबाल
मुझे पता था
जिंदगी एक बार फिर खड़ी होगी
खुषियां फिर आएगी मेरे दरवाजे.....

jindgi phir lout aayi...

Jindgi phir khadi hui hai

Us ek hadse ke baad

Khushiya phir aayi hai mere darwaze

Us ek matam ke baad….

Mai bhi uth khada hu

Unka istakbal karne

Mujhe pata tha

Jindgi ek bar phir khadi hogi

Khushiya phir ayegi mere darwaze

jindgi phir lout aayi...


jindgi phir khadi hui hai
us ek hadse ke baad
khushiya phir aayi hai mere darwaze
us ek matam ke baad....
mai bhi uth khada hu
kar raha hu unka istakbal
mujhe pata tha
jindgi ek bar phir khadi hogi
khushiya phir aayegi mere darwaze....

jindgi phir lout aayi...


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Wednesday, February 17, 2010

amar katha...


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nyksa dh ,d etsnkj ckr ;g gS fd muds usr`Ro dh igyh iafDr ds ckjs esa fdlh rjg dk 'kd&lqcgk ;k fookn gks gh ugha ldrk- u gh muds }kjk pqukoksa esa [kM+s fd, tkus okys mEehnokjksa dks ysdj dksbZ izfrokn laHko gS- D;ksaafd ;s lHkh fu.kZ; fliQZ ,d O;fDr }kjk fd, tkrs gSa vkSj ;fn og bl izfØ;k esa vU; yksxksa dh jk; ysrk Hkh gS rks egt vkSipkfjdrko'k- ;fn ;s ny okLro esa yksdrkaf=kd gksrs rks D;k vf[kys'k ;kno dh iRuh fMEiy us fiQjkstkckn ls pquko yM+k gksrk\ lektoknh ikVhZ us vkf/dkfjd :i ls dgk Fkk fd fiQjkstkckn dh turk dh fujarj ekax ds dkj.k gh fMEiy dks jktuhfr esa vkuk iM+ jgk gS- 'kk;n eqyk;eflag ;kno [kqn Hkh fMEiy ;kno ds usr`Ro dh mu {kerkvksa ls ifjfpr ugha gksaxs] ftudh igpku fiQjkstkckn dh turk us dj yh Fkh- cgjgky] ikVhZ usr`Roksa }kjk ifjokjokn dks c<+kok nsus dh ekufldrk ds pyrs gh fcgkj esa jkcM+hnsoh lÙkk esa vkus esa dke;kc gqbZ Fkh- jkt Bkdjs ds lkjs jktuhfrd vuqHko ij m¼o Bkdjs dks ojh;rk ns nh xbZ Fkh vkSj d#.kkfuf/ dks yxrk gS fd muds lHkh iq=k ,oa iqf=k;ka dsaæ ljdkj esa egRoiw.kZ in laHkkyus ds yk;d gSa- dY;k.kflag Hkh ;s ekurs gSa fd muds iq=k jktohjflag] tks fd mudh ikVhZ ds vkt rd ds lcls ;qok jk"Vªh; vè;{k gSa] mÙkjizns'k dh turk ds fgrksaa dh j{kk djus ds fy, lcls l{ke gSa- tkfgj gS] ,sls jktuhfrd nyksa vkSj usrkvksa dk iQyuk&iQwyuk Hkkjrh; jktuhfr dh [kkfe;ksa dk izrhd gS- ysfdu blls Hkh badkj ugha fd;k tk ldrk fd Hkkjrh; jktuhfr dh ;gh lcls dM+oh gdhdr gS-

powerful ministers


dsanz esa dke;kchiwoZd viuh nwljh ikjh [ksy jgh dkaxzsl ds usr`Ro okyh ;wih, ljdkj dh fLFkjrk ds fy, vxj nl tuiFk dks lcls T;knk rkjhiQsa feyrh gSa] rks bl ckr ls Hkh gj dksbZ lger utj vkrk gS fd ljdkj ds 'kh"kZ usr`Ro esa vusd ,sls etcwr LraHk gSa] ftudh enn ds fcuk ;wih, ds fy, yxkrkj nwljh ckj lRrk esa vkuk vkSj iwjh fLFkjrk ds lkFk nqfu;k ds lcls cM+s yksdrkaf=kd ns'k dks pykuk vklku dke lkfcr ugha gksrk- vkSj ;g etcwr LraHk izR;sd {ks=k ls gS- buesa dqNsd meznjkt gks pys] ysfdu jktuhfr dk gj nkao&isp le>us esa ekfgj cqtqxZ usrk gSa- dqN rst fnekx ds lkFk gh oiQknkjh vkSj drZO;&leiZ.k dk Hkh Hkko j[kus okys ukSdj'kkg gSa- dqN ns'k dh jktuhfr esa de le; esa gh viuh etcwr idM+ cuk pqds usrk gSa] rks dqN ,slh Hkh 'kf[l;rsa gSa] ftuds vrhr ds ;ksxnku dk lEeku djrs gq, ljdkj us vius lkFk ys fy;k gS- ,sls esa vk'p;Z ugha fd vyx&vyx {ks=k dh bu fnXxt 'kf[l;rksa ds cycwrs ;wih, ljdkj vius izfr}af};ksa dks iNkM+rs gq, ns'k dh turk dh yksdfiz; ljdkj cuh gqbZ gS-

ojh;rk Øe esa j[kus dh fLFkfr ls cprs gq, vxj bu 'kf[l;rksa ds uke fxuk, tk,a rks os gksaxs& iz.kc eq[kthZ] ih- fpnacje] fnfXot;flag] ,ds ,aVksuh] vgen iVsy] vkuan 'kekZ] ,eds ukjk;.ku] t;jke jes'k] Vhds, uk;j vkfn- lgh ek;uksa esa] ;s os 'kf[l;rsa gSa] ftUgksaus ;wih, ljdkj ds fiNys Ng lky ds dk;Zdky esa lcls vge ;ksxnku fn;k gS- buesa ,d vkSj uke tksM+k tk ldrk gS- og gS ;wih, ljdkj ds nwljs dk;Zdky esa crkSj jsyea=kh 'kkfey gqbZ eerk cuthZ- bu lHkh 'kf[l;rksa us nl tuiFk dh izR;sd j.kuhfr dks iQyhHkwr djus esa vge Hkwfedk fuHkkbZ] cfYd os ns'k dh turk ds lkeus ljdkj dk mtyk i{k Hkh dke;kchiwoZd j[kus esa dke;kc jgs- bUgha ds cwrs vius nwljs dk;Zdky esa Hkh iwjh fLFkjrk ds lkFk ns'k ds fodkl esa tqVh ;wih, ljdkj ns'k dh turk ds chp ^fLFkj] fodkl'khy vkSj Hkjkslsean ljdkj* dk izrhd cu xbZ gS-

bu 'kf[l;rksa esa ;wih, ds ekStwnk foRrea=kh iz.kc eq[kthZ dk uke lcls igys fy;k tk ldrk gS- bafnjk xka/h dh lykg ij 1980 esa lfØ; jktuhfr esa inkiZ.k djus okys iz.kcnk de le; esa gh xka/h ifjokj ls utnhfd;ka dk;e djus esa Hkh dke;kc jgs- blds ckn os ges'kk gh dkaxzsl esa ,d lEekfur 'kf[l;r jgs vkSj ;wih, ljdkj ds igys dk;Zdky esa fons'k ea=kh ds muds in us bl ij eqgj Hkh yxk nh- vly esa] pgRrj lky ds eq[kthZ dks ;wih, ljdkj ds ^ladVekspd* dk ntkZ gkfly gS- vius igys dk;Zdky esa ijek.kq djkj] jkelsrq] egaxkbZ vkSj vkradokn tSls eqn~nksa ij tc&tc ;wih, ljdkj foi{k dh vkykspuk dk f'kdkj cuh] eq[kthZ us ,d ^ladVekspd* dh Hkkafr gj ckj mls detksj fLFkfr ls mckjk- blds lkFk gh os ;wih, ljdkj ds 'kh"kZ j.kuhfrdkjksa esa Hkh fxus tkrs gSa- vly esa] vxj lksfu;k xka/h vkSj jkgqy xka/h dks ;wih, ljdkj dk fgLlk u ekusa] rks iz/kuea=kh MkW- eueksguflag ds ckn eq[kthZ dks ljdkj esa uacj nks dk ntkZ gkfly gS- bldh >yd le;≤ ij gksus okyh dSfcusV Lrj dh cSBdksa esa vklkuh ls fey tkrh gS] ftuesa iz/kuea=kh izR;sd t:jh fu.kZ; ysus ls igys eq[kthZ dk utfj;k vfuok;Z :i ls lqurs gSa- dqN eghus igys tc iz/kuea=kh ân; ds vkWijs'ku ds fy, vLirky esa HkrhZ Fks] rks ljdkj dh ckxMksj eq[kthZ us gh laHkkyh Fkh] tks mudh vgfe;r dk ,d iq[rk lcwr gS- cM+h ckr ;g gS fd iz/kuea=kh ds lcls djhch lg;ksxh gksus ds lkFk gh eq[kthZ dks nl tuiFk dk Hkh iwjk leFkZu gkfly gS- bls ;wih, ds nwljs dk;Zdky esa eq[kthZ dh ftEesnkjh dks ysdj ml oDr eph tn~nkstgn ls gh le>k tk ldrk gS- vly esa] iz/kuea=kh MkW- eueksguflag ;wih, ds nwljs dk;Zdky esa foRrea=kh ds :i esa ;kstuk vk;ksx ds iwoZ mikè;{k eksaVsdflag vgywokfy;k dks lfEefyr djuk pkgrs Fks- ysfdu lksfu;k xka/h us ekeys esa gLr{ksi djrs gq, ;g ftEesnkjh iz.kc eq[kthZ ds vuqHkoh da/ksa dks ghs lkSaih- bu lcds chp] iz.kcnk fod`r gks pqds ekStwnk jktuhfrd ifjn`'; esa Hkh xfjeke;h jktuhfr dh lqxa/ dk;e j[ks gq, gSa-

iz.kc eq[kthZ ds ckn ;wih, ljdkj ds lcls fo'oluh; psgjksa esa ih- fpnacje dk uke fy;k tk ldrk gS- ;wih, ljdkj ds nwljs dk;Zdky esa x`gea=kh tSlh vge ftEesnkjh dk fuoZgu dj jgs fpnacje Hkh eq[kthZ dh Hkkafr gh ;wih, ljdkj ds ^dksj xzqi* dk vge fgLlk gSa- ljdkj ds igys dk;Zdky esa crkSj foRrea=kh ns'k ds lkB gtkj ls T;knk fdlkuksa dks dtZ ekiQh dk rksgiQk nsus okys fpnacje dks mudh bl miyfC/ us nl tuiFk dk ilanhnk cukus esa lcls vge Hkwfedk fuHkkbZ- blds lkFk gh ns'k ds x`gea=kh ds :i esa mUgksaus 26@11 /ekdksa ds ckn ns'k dks u fliQZ ;g lnek >syus ds dkfcy cuk;k] cfYd Hkkjr iksf"kr vkradokn dh ljteha ikfdLrku dh gdhdr dks Hkh iwjh etcwrh ds lkFk nqfu;k ds lkeus j[kk- [kkl ckr ;g gS fd ih- fpnacje crkSj foRrea=kh ;wih, ljdkj dk fgLlk ml uktqd oDr esa cus Fks] tc rRdkyhu foRrea=kh uVojflag us rsy ds cnys vukt ?kksVkys ds lkFk ;wih, ds xrZ esa pys tkus dk iwjk izca/ dj fn;k Fkk- ckotwn blds] fpnacje us u fliQZ ;wih, dh xfjek c<+kbZ] cfYd [kqn dks gjiQuekSyk usrk ds rkSj ij Hkh LFkkfir fd;k- urhtru] vc fpnacje dks ;wih, ljdkj ds lcls ikjn'khZ] fodklilan vkSj lkiQ&lqFkjh Nfo ds usrkvksa esa 'kqekj fd;k tkrk gS- vesfjdk ds gkoZMZ fctusl Ldwy ls ,ech, dh fMxzh gkfly djus okys fpnacje nwf"kr jktuhfr ds nkSj esa fodklilan usrk ds rkSj ij Lo;a dks etcwrh ds lkFk LFkkfir dj pqds gSa-

eè;izns'k ds iwoZ eq[;ea=kh fnfXot;flag dk uke Hkh ;wih, ljdkj ds rkj.kgkjksa esa fy;k tk ldrk gS- 2003 ds eè;izns'k fo/kulHkk pqukoksa esa ml oDr fnfXot;flag dh vxqokbZ esa lRrk ij dkfct dkaxzsl dh yqfV;k iwjh rjg ls Mwc xbZ Fkh] tc ikVhZ 230 lhVksa okyh fo/kulHkk esa ek=k 37 lhVksa ij fleVdj jg xbZ Fkh- blds fy, lcls T;knk fnfXot;flag dks gh ftEesnkj Bgjk;k x;k Fkk vkSj blds vk/kj ij muds jktuhfrd dfj;j ds lekiu dh Hkfo";okf.k;ka Hkh dj nh xbZ Fkha- ysfdu fnfXot;flag us mu lHkh Hkfo";okf.k;ksa dks xyr lkfcr dj fn;k vkSj vkt os dsanz esa ;wih, ljdkj ds ,d vge flikgh ds rkSj ij mYys[kuh; Hkwfedk fuHkk jgs gSa- cklB o"khZ; fnfXot;flag viuh rh{.k jktuhfrd le> vkSj csckd c;kuh ds fy, tkus tkrs gSa- bUgha [kwfc;ksa ds pyrs dkaxzsl ds 'kh"kZ usr`Ro us mUgsa vius foif{k;ksa dh vkykspukvksa dk ekdwy tokc nsus dh ftEesnkjh Hkh lkSai j[kh gS- lektoknh ikVhZ ds eqyk;eflag ;kno vkSj vejflag dks mUgksaus viuh blh [kwch dh cnkSyr iwjh rjg ls njfdukj djus esa dke;kch gkfly dh Fkh- crkSj dkaxzsl egklfpo fnfXot;flag dh lcls cM+h miyfC/ mRrjizns'k ds yksdlHkk pquko jgs- njvly] bl lky ebZ esa gq, yksdlHkk pqukoksa esa fnfXot;flag us gh nl tuiFk dks turk ds chp vdsys tkus dh lykg nh Fkh- dkaxzsl ds fy, ;g lykg cgqewY; lkfcr gqbZ vkSj mlus mRrjizns'k esa [kjkc izn'kZu ds yacs nkSj dks ihNs NksM+rs gq, peRdkfjd izn'kZu fd;k vkSj vdsys cwrs ij 20 lhVsa thrha- blds ckn egkjk"Vª ds fo/kulHkk pqukoksa esa Hkh mUgksaus jkdkaik ds ncko dks njfdukj djrs gq, ,d ckj fiQj dkaxzsl dks jkT; dh lRrk ij dkfct gksus esa vge Hkwfedk fuHkkbZ- fnfXot;flag dks jkgqy xka/h ds Hkh csgn djhc ekuk tkrk gS vkSj jktuhfrd xfy;kjksa esa vDlj ;g ppkZ gksrh gS fd vly esa os jkgqy xka/h ds jktuhfrd lykgdkj gSa- gkykafd os [kqn dks dkaxzsl dk lk/kj.k fliglkykj djkj nsrs gSa] ysfdu tkuus okys tkurs gSa fd iz.kc eq[kthZ vkSj ih- fpnacje dh rjg gh fnfXot;flag Hkh dkaxzsl ds ^dksj xzqi* dk vge fgLlk gSa-

;wih, ljdkj ds nwljs dk;Zdky esa i;kZoj.k ea=kky; dh ftEesnkjh laHkky jgs t;jke iVsy gkykafd bl ^dksj xzqi* dk fgLlk rks ugha gS] ysfdu fiQj Hkh mUgksaus vusd ekeyksa esa viuh mi;ksfxrk lkfcr dh gS- nf{k.k esa fLFkr ;wih, ds lg;ksfx;ksa ds fojks/ ds ckotwn mUgksaus iz/kuea=kh ds lg;ksx ls Úh VsªsM ,xzhesaV dks lgefr fnykus esa vge Hkwfedk fuHkkbZ- blls igys Hkh ;wih, ds nwljs dk;Zdky esa mUgksaus okf.kT; ea=kky; c[kwch laHkkyk Fkk- blds lkFk gh jes'k dks mudh 'kS{kf.kd i`"BHkwfe ds pyrs Hkh ;wih, dk 'kh"kZ usr`Ro lEeku nsrk gS- vkbZvkbZVh bathfu;j jg pqds jes'k i;kZoj.k ea=kh ds rkSj ij viuh Hkwfedk ,sls oDr esa dke;kchiwoZd fuHkk jgs gSa] tcfd ^Xykscy okfeZax* dks ysdj lewph nqfu;k esa vleatl dh fLFkfr cuh gqbZ gS- bl pqukSrh dks Lohdkj djrs gq, phu ds lkFk feydj mUgksaus Hkkjr dks nf{k.k ,f'k;k esa ^Xykscy okfeZax* dks ysdj lcls tokcnsg ns'kksa esa 'kqekj dj fn;k gS- blds lkFk gh mUgsa jkgqy xka/h dk djhch lg;ksxh Hkh ekuk tkrk gS- 2004 ds pqukoksa esa dkaxzsl ds ^vke vkneh* ds vfHk;ku dks ernkrkvksa rd igqapkus esa mUgksaus vge Hkwfedk fuHkkbZ Fkh- jkgqy vkSj lksfu;k xka/h ds Hkk"k.kksa dks izHkko'kkyh cukus esa Hkh os lkFkZd ;ksxnku nsrs gSa- fczfV'k if=kdk ^U;w LVsV~leSu* us mUgsa viuh ojh;rk lwph esa lksfu;k xka/h ls Hkh Åij j[krs gq, ^xzhu tsaV* dh mikf/ nh Fkh-

;wih, esa j{kk ea=kh dh ftEesnkjh laHkky jgs ,ds ,aVksuh Hkh ljdkj ds mtys psgjksa esa fxus tkrs gSa- dsjy dh i`"BHkwfe ls vkus okys ,aVksuh dh lcls cM+h [kwch mudh bZekunkjh gS] ftls mUgksaus Hkz"V jkthuhfr ds bl nkSj esa Hkh dk;e j[kk gS- os dSfcusV Lrj dh cSBdksa esa de gh cksyrs gSa] ysfdu mudh ckr gj txg lquh tkrh gS- blh rjg dh Hkwfedk okf.kT; ea=kh vkuan 'kekZ Hkh ;wih, ljdkj esa fuHkk jgs gSa- NIiu o"khZ; 'kekZ dk uke jktuhfrd xfy;kjksa esa lcls igys rc ppkZ esa vk;k Fkk] tc mUgsa lhchvkbZ izeq[k dh ftEesnkjh lkSais tkus dh [kcjs vkbZ Fkha- gkykafd vkf[kjh oDr esa 'kekZ dh lgefr ds ckn vf'ouh dqekj dks ;g ftEesnkjh lkSai nh xbZ] ysfdu blls mudh gSfl;r esa c<+ksrjh gh gqbZ- jktho xka/h ds lkFk dke dj pqds 'kekZ dkaxzsl ds fy, fgekpy izns'k dk lcls Hkjkslsean psgjk cu x, gSa- ;g mudh dfj'ekbZ Nfo dk gh vlj gS] ftlus ohjHknzflag tSls dn~nkoj usrk dh jktuhfr dks Hkh fgekpy izns'k esa iQhdk lkfcr dj fn;k gS- orZeku esa os ;wih, ljdkj ds izoDrk dh Hkwfedk Hkh dq'kyrkiwoZd fuHkk jgs gSa-

bu lcds chp ;wih, ljdkj ds nwljs dk;Zdky esa jsy ea=kky; dh ftEesnkjh laHkky jgh eerk cuthZ Hkh ljdkj dk izeq[k psgjk cudj mHkjh gSa- ;g cuthZ dh dn~nkoj 'kf[l;r gh gS] tks mUgksaus ykyw ;kno ds lekukarj izn'kZu djrs gq, jsy ea=kky; dh fo'oluh;rk dks cjdjkj j[kk gS- njvly] dkaxzsl eerk cuthZ dks okeiafFk;ksa ds fodYi ds rkSj ij ns[k jgh gS- ns'k ds T;knkrj jkT;ksa dh lRrk ij dkfct gks pqdh dkaxzsl if'pe caxky dh lRrk ij Hkh utjsa fVdk, cSBh gSa- ysfdu mls vPNs ls irk gS fd if'pe caxky esa okeiafFk;ksa dks cuthZ dh enn ds cxSj lRrk ls ckgj djuk vklku ugha gS- m/j] jktuhfrd xfy;kjksa esa Hkh cuthZ dks if'pe caxky dh vxyh eq[;ea=kh ds rkSj ij ns[kk tk jgk gS- ;g cuthZ dh ;wih, esa etcwr fLFkfr dk gh urhtk gS] tks os futh {ks=k ds tehu vf/xzg.k ls tqM+s ekeyksa esa ljdkj dh n[kyvankth de djkus esa dke;kc jgha- blds lkFk gh mUgksaus flyhxqM+h ds es;j pqukoksa esa okeiafFk;ksa ls gkFk feykus ij Hkh dkaxzsl dks cqjh rjg yrkM+k vkSj viuh vgfe;r lkfcr dh- nks ntZu ls T;knk eaf=k;ksa ds lkFk os ;wih, ljdkj dk vge fgLlk cuh gqbZ gSa-

;wih, ds bu Hkjkslsean eaf=k;ksa ds lkFk gh dqN ,sls Hkh psgjs gSa] tks insZ ds ihNs ls vge Hkwfedk fuHkkrs gSa- buesa lksfu;k xka/h ds jktuhfrd lykgdkj vgen iVsy dk uke lcls igys vkrk gS- fliQZ pkj ?kaVs dh uhan ysus okys lkB o"khZ; iVsy dks Hkh ;wih, ds 'kh"kZ j.kuhfrdkjksa esa 'kqekj fd;k tkrk gS- vly esa] jktuhfrd xfy;kjksa esa ;g ekuk gqvk rF; gS fd lksfu;k xka/h vkSj iz/kuea=kh eueksguflag ds ckn vgen iVsy gh ljdkj ls tqM+s lHkh iQSlyksa esa lcls vge Hkwfedk fuHkkrs gSa- ehfM;k lss nwj jgus okys vkSj 'kkar LoHkko ds iVsy insZ ds ihNs ds f[kykM+h gSa] tks ;wih, dh Nfo x<+us esa iwjk ;ksxnku ns jgs gSa-

iVsy ds ckn ;wih, ljdkj ds jk"Vªh; lqj{kk lykgdkj ,eds ukjk;.ku dk uke vkrk gS- 2005 esa rRdkyhu lqj{kk lykgdkj ts,u nhf{kr dh e`R;q ds ckn tc ukjk;.ku dks ;g ftEesnkjh lkSaih xbZ Fkh] rks gj dksbZ vk'p;Zpfdr Fkk- ysfdu vc mUgksaus viuh izklafxdrk iwjh rjg ls lkfcr dj nh gS- baVsfytsal C;wjks ds izeq[k dh Hkwfedk fuHkk pqds ukjk;.ku jktho xka/h dh [kkst gSa vkSj blhfy, nl tuiFk ds djhch gSa- lqj{kk ekeyksa ls tqM+s gksus ds dkj.k os lqj{kk eqn~nksa ij ljdkj }kjk fy, tkus okys iQSlyksa esa vge Hkwfedk fuHkkrs gSa- blds lkFk gh x`gea=kh dh xSjekStwnxh esa os gh lqj{kk ekeyksa ls tqM+s iQSlys ysrs gSa- iz/kuea=kh MkW- eueksguflag ds lkFk cf<+;k rkyesy Hkh mudh ,d cM+h miyfC/ gS- iVsy ds lkFk gh iz/kuea=kh dk;kZy; ds eq[; lfpo Vhds, uk;j Hkh insZ ds ihNs ls vge Hkwfedk fuHkk jgs gSa- iatkc dsMj ds iwoZ vkbZ,,l vf/dkjh uk;j vius iwoZorhZ eq[; lfpoksa dh rjg T;knk yksdfiz; Hkys gh u gksa] ysfdu urhts nsus ds ekeys esa os lHkh dks ihNs NksM+ pqds gSa- vly esa] uk;j dkaxzsl usr`Ro vkSj ;wih, ljdkj ds chp lsrq dk dke djrs gSa- blh ds pyrs mUgsa iz/kuea=kh dk;kZy; ds izeq[k j.kuhfrdkjksa esa 'kqekj fd;k tkrk gS-

vly esa] mDr lHkh 'kf[l;rsa ;wih, ljdkj ds etcwr LraHkksa dh Hkwfedk fuHkk jgs gSa- muds ikl ,d lkFk dbZ pqukSfr;ka Hkh gSa- os ljdkj dks nq'okfj;ksa ls cpkrs Hkh gSa vkSj mldh fodkl'khy Nfo x<+us esa Hkh vge Hkwfedk fuHkkrs gSa- blds lkFk gh mu lHkh us Lo;a ds fgrksa dks utjvankt djrs gq, ns'kfgr vkSj ikVhZ fgr dks loksZifj j[kk gS- ;wih, ljdkj vxj vius dk;Zdky esa NBs lky esa Hkh etcwrh ds lkFk u fliQZ cuh gqbZ gS] cfYd ns'k dh turk dh Hkh igyh ilan gSa] rks blds ihNs bu 'kf[l;rksa dh vge Hkwfedk gS- os lHkh lefiZr fliglkykj dh rjg viuh ljdkj dks etcwrh iznku djus esa tqVs gq, gSa-

mayawati's x factor

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