Friday, February 19, 2010

दोगलेपन पर उतारू भाजपा




देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा के ऊपर अगर हमेशा ही यह आरोप लगता रहा है कि वह अपनी सोच और नीतियों को लेकर हमेशा ही दोहरा रवैया अपनाती आई है, तो यह गलत नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथसिंह और अब पार्टी के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के कार्यकाल में भी भाजपा का यह दोगलापन जस का तस कायम है। किसी को अगर इसकी मिसाल देखनी थी, तो वह मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधनी इन्दौर में भाजपा के तीन दिवसीय अधिवेशन में चला जाता। गडकरी की अगुवाई में भाजपा ने इस अधिवेशन का खाका तो इसलिए तैयार किया था, कि अंर्तविरोधों और आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों से जूझ रही पार्टी में एक नई जान फूंकने का प्रयास किया जाए। लेकिन इसके ठीक उलट यह अधिवेशन पार्टी के दोगलेपन को उजागर करने वाला साबित हुआ। दोगलापन यह कि लगातार दो लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद पार्टी ने अपनी विचारधारा में बदलाव के स्पष्ट संकेत दिए थे। राजनाथसिंह और आडवाणी की विदाई के साथ पार्टी ने यह जताने की कोशिश की थी कि भविष्य में वह राम नाम नहीं जपेगी, बल्कि कांग्रेस की तरह ही विकास की राजनीति को तवज्जो देगी। लेकिन इन्दौर के तीन दिवसीय अधिवेशन में एक बार फिर भाजपा की कथनी और करनी का अंतर उजागर हो गया, जब गडकरी भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही राम का नाम जपते आए। गडकरी साहब अधिवेशन में बुलंद आवाज के साथ यह कह गए कि अयोध्या और राम तो पार्टी की आत्मा में बसे हुए हैं, सो इससे पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं उठता। फर्क सिर्फ इतना रहा कि अपने पूर्ववर्तियों के उलट गडकरी ने अयोध्या मामले को सुलझाने का एक नया और अजीबोगरीब प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव यह कि देश के मुसलमान भाई अयोध्या में मंदिर बनाने दे, उसके बदले में भाजपा मंदिर के आसपास मस्जिद बनाने में मदद करेगी। अब यह एक नया और अजीबोगरीब प्रस्ताव है? अजीबोगरीब इसलिए क्योंकि यह देश में एक नए विवाद को जन्म दे सकता है। प्रस्ताव अजीबोगरीब इसलिए भी है, क्योंकि इस बात की प्रबल संभावना है कि स्वयं गडकरी की पार्टी के नेता ही इसे स्वीकार करने में दिलचस्पी नहीं दिखाएंगे। गडकरी भले ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ईशारे पर भाजपा के सर्वेसर्वा बनाए गए हैं, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पार्टी के अन्य दिग्गज नेताओं ने उन्हें इस कदर स्वीकार कर लिया है कि वह अध्यक्ष बनने के मात्र दो महीनों बाद पार्टी के सबसे अहम मुद्दें में ही इस तरह के आमूलचूल बदलाव ले आएं।
असलियत यह है कि भाजपा हमेशा ही धर्म की राजनीति को पोषणे वाली पार्टी रही है। बाबरी विध्वंस के बाद उसने हमेशा ही देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास किया है। देश में भूखमरी है, कंगाली और कर्जे से मरते किसान हैं, बेरोजगार युवा हैं और महंगाई के तले दम तोड़ता मध्यमवर्गीय तबका है। लेकिन उनकी समस्याओं को सुलझाने के बजाए रामजन्मभूमि विवाद भाजपा को केंद्र की सत्ता में आने का सबसे अच्छा हथियार नजर आता है। इसी नजरिए के चलते, गडकरी को भी कानपूर स्थित संघ के मुख्यालय से फरमान सुना दिया गया है कि साहब आप तो बस अयोध्या का नाम रटो, देश के मतदाता अपने आप पार्टी की तरफ खींचे चले आएंगे। इसीलिए विचारधारा में बदलाव की सभी उम्मीदों को खारिज करते हुए गडकरी ने भी राम का नाम जपकर पार्टी की सोच पर मुहर लगा दी है।
गडकरी ने अधिवेशन में अपने तीन घंटे से ज्यादा चले भाषण के आखिर में एक बड़ी सुंदर कविता पढ़ी, जिसका तात्पर्य यह था कि भीषण आग से घिरे एक मकान के ऊपर अपनी चोंच से पानी के कुछ कतरे डालने वाली चिढ़ियां भी यह सोचकर खुश होती है कि उसका नाम आग लगाने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वालों में लिया जाएगा। निश्चित ही यह बड़ी सुंदर कविता थी, लेकिन गडकरी अपनी अयोध्या केंद्रित सोच के चलते इसके साथ न्याय नहीं कर पाएं। वजह, उनका नाम भी भाजपा के इतिहास में अयोध्या मसलें की आग को और ज्यादा भड़काने वालों में लिया जाएगा, न कि इस मसले की आग को बुझाने वालों में।

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